THE BIKANER NEWS:- बीकानेर।
बेसिक पी.जी. महाविद्यालय में राष्ट्रीय युवा सप्ताह के दौरान वनस्पतिविज्ञान विभाग द्वारा सेमिनार का आयोजन
बेसिक पी.जी. महाविद्यालय द्वारा राष्ट्रीय युवा सप्ताह के अन्तर्गत ‘‘वुड फाॅसिल्स’’ विषय पर एक कार्यक्रम का आयोजन रखा गया। महाविद्यालय प्राचार्य डाॅ. सुरेश पुरोहित ने बताया कि आज के कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के रूप में डाॅ. राकेश हर्ष, सहायक निदेशक, आयुक्तालय काॅलेज शिक्षा, बीकानेर क्षेत्र मौजूद रहे एवं कार्यक्रम की अध्यक्षता महाविद्यालय प्रबंध समिति के अध्यक्ष श्री रामजी व्यास ने की।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में महाविद्यालय प्राचार्य डाॅ. सुरेश पुरोहित द्वारा स्वागत उद्बोधन प्रस्तुत करते हुए विषय प्रवर्तन किया गया। उनके द्वारा बताया कि लाखों साल पहले धरती पर पाए जाने वाले जीवों (पौधे और जंतुओं) के आकार-प्रकार, जीवनयापन के तरीकों के बारे में जानना कितना रोचक और रोमांचक होता है। जीवाश्मों का अध्ययन हर किसी के मन में उत्साहजनक अनुभूति पैदा करता है। डाॅ. पुरोहित ने बताया कि जीवाश्म और इसका विज्ञान अपने आप में बहुत दिलचस्प है। पृथ्वी पर जीवन के इतिहास को समझने की दिशा में जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन एक उपयोगी औजार साबित हुआ है।
इस अवसर पर ‘‘वुड फाॅसिल्स’’ पर मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित करते हुए डाॅ. राकेश हर्ष ने बताया कि जीवाश्म विज्ञान में प्रमाणिक तौर पर जीवों के उसी अवशेष को ‘जीवाश्म’ कहते हैं जो कम से कम दस हजार वर्ष पुराना हो। ये जीवाश्म एककोशीय जीवाणु जितने सूक्ष्म आकार के भी हो सकते हैं और कई मीटर लंबे तथा अनेक टन वजनी डाइनासॉरों जितने विशालकाय भी। वास्तव में जीवाश्म किसी जंतु या पौधे का पृथ्वी में दबा हुआ अवशेष होता है और यह हजारों लाखों साल पहले का हो सकता है। जीवों के शरीर के अंग, हड्डियां या प्राचीन जंतुओं द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला मार्ग या सुरंग, इन रूपों में जीवाश्म हो सकते हैं। डाॅ. हर्ष ने बताया कि जीवाश्मों का अपना अनोखा संसार है। कुछ जीवाश्म इतने छोटे होते हैं कि वे हमें कोरी आंखों से नहीं दिखाई देते। इन्हें सूक्ष्म जीवाश्म या माइक्रो-फॉसिल कहते हैं। कभी-कभी भू-भौतिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप पत्थर में लवण के कारण किसी जीवाश्म के समान पैटर्न बन जाता है। इन्हें भूलवश वास्तविक जीवाश्म मान लिया जाता है जबकि इनके निर्माण और विकास में किसी भी प्रकार की जैविक प्रक्रिया शामिल नहीं होती। इस प्रकार के जीवाश्म को आभासी जीवाश्म कहते हैं। अपने उद्बोधन के दौरान वुड फाॅसिल्स के बारे में विस्तार से व्याख्यान देते हुए डाॅ. राकेश हर्ष ने विद्यार्थियों को यह भी बताया कि भारतीय वैज्ञानिक बीरबल साहनी ने जीवन पर्यंत पादप जीवाश्मों पर कार्य किया। 1949 ई. में उन्होंने लखनऊ, उत्तर प्रदेश में पुरावनस्पति संस्थान की नींव रखी जो आज बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान के नाम से जाना जाता है। पादप जीवाश्मों के अनुसंधान के लिए यह संस्थान न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया का अकेला संस्थान है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए महाविद्यालय प्रबंधन समिति के अध्यक्ष श्री रामजी व्यास ने बताया कि जीवाश्म को ढूंढना वास्तव में एक कठिन और श्रमसाध्य काम होता है। अवसादी शैलों और नदियों के तल में सर्वाधिक जीवाश्म पाए जाते हैं। अनेक देशों की सरकारों ने डाइनोसॉर एवं अन्य जीवों के दुर्लभ जीवाश्मों की उचित खुदाई के लिए कानून बनाए गए हैं। ये कानून केवल निपुण वैज्ञानिक को ही इस कार्य की इजाजत देता है क्योंकि वे जीवाश्म और उनकी खुदाई के वैज्ञानिक ढंग को भली-भांति जानते हैं। विश्व भर के संग्रहालयों मे डाइनोसॉर के जीवाश्म हमेशा लोगों के आकर्षण के केंद्र रहे है।
कार्यक्रम के अन्त में महाविद्यालय प्रबंध समिति के अध्यक्ष श्री रामजी व्यास एवं प्राचार्य डाॅ. सुरेश पुरोहित द्वारा मुख्य वक्ता डाॅ. राकेश हर्ष को शाॅल एवं प्रतीक चिह्न भेंट कर आभार प्रकट किया गया।
कार्यक्रम को सफल बनाने में महाविद्यालय स्टाफ सदस्य डाॅ. मुकेश ओझा, श्री वासुदेव पंवार, श्री सौरभ महात्मा, सुश्री श्वेता पुरोहित, सुश्री प्रियंका देवड़ा, श्रीमती अर्चना व्यास, श्री अजय स्वामी, श्री जयप्रकाश, श्री हिमांशु व्यास, श्री गणेश दास व्यास, सुश्री जयन्ती व्यास, डाॅ. नमामिशंकर आचार्य, श्री हितेश पुरोहित, श्रीमती प्रभा बिस्सा, श्री पंकज पाण्डे, श्री राजीव पुरोहित आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा।