राजस्थान के लोगों के लिए सूखा मेवा बना टीमरू का पेड़, फल बेचकर बढ़ा रहे है इनकम
Rajasthan:-दक्षिणी राजस्थान के हरित और वनवासी इलाकों में प्राकृतिक संपदा की भरमार है। इन्हीं में एक महत्वपूर्ण पेड़ है टीमरू। प्रतापगढ़ जिले सहित आसपास के इलाकों में टीमरू के पेड़ काफी संख्या में पाए जाते हैं। इन दिनों टीमरू के पेड़ों पर फल पक चुके हैं। जो स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए किसी मेवे से कम नहीं हैं।
प्राकृतिक संपदा का प्रतीक
टीमरू का पेड़ स्थानीय जैव विविधता का अहम हिस्सा है। इसके फल और पत्तों से जुड़ी जीवनशैली आदिवासी संस्कृति और परंपरा को भी दर्शाती है। बदलते समय में इसकी महत्ता को बनाए रखने के लिए जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
बढ़ी मांग
टीमरू के फल पकने के साथ ही आदिवासी अंचलों में इसकी मांग बढ़ गई है। बच्चे, बूढ़े और युवा सभी इन फलों को बड़े चाव से खाते हैं। गर्मी के मौसम में यह प्राकृतिक स्वाद का अनूठा अनुभव कराते हैं। स्थानीय भाषा में लोग इसे जंगल का मेवा भी कहते हैं। जो स्वादिष्ट होने के साथ-साथ ऊर्जा भी प्रदान करता है।
संरक्षण की भी जरूरत
टीमरू के वनों का संरक्षण करना आवश्यक हो गया है। क्योंकि यह न केवल आर्थिक दृष्टि से लाभकारी है। बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वन विभाग समय-समय पर टीमरू के पौधरोपण और संरक्षण को बढ़ावा देने के प्रयास करता रहा है।
टीमरू के केवल फल ही नहीं, बल्कि इसके पत्ते भी बेहद उपयोगी हैं। वन विभाग द्वारा तय प्रक्रियाओं के तहत टीमरू के पत्तों की तुड़ाई कराई जाती है, जिसे ठेकेदारों को बेचा जाता है। ये पत्ते बीड़ी निर्माण में प्रमुखता से काम आते हैं। ग्रामीणों के लिए यह एक महत्वपूर्ण आय का साधन भी बन गया है। तुड़ाई के मौसम में बड़ी संख्या में लोग इससे रोजगार प्राप्त करते हैं।
राजस्थान के लोगों के लिए सूखा मेवा बना टीमरू के पेड़, फल को बेचकर बढा रहे इंकम
दक्षिणी राजस्थान के हरित और वनवासी इलाकों में प्राकृतिक संपदा की भरमार है। इन्हीं में एक महत्वपूर्ण पेड़ है टीमरू। प्रतापगढ़ जिले सहित आसपास के इलाकों में टीमरू के पेड़ काफी संख्या में पाए जाते हैं। इन दिनों टीमरू के पेड़ों पर फल पक चुके हैं। जो स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए किसी मेवे से कम नहीं हैं।
प्राकृतिक संपदा का प्रतीक
टीमरू का पेड़ स्थानीय जैव विविधता का अहम हिस्सा है। इसके फल और पत्तों से जुड़ी जीवनशैली आदिवासी संस्कृति और परंपरा को भी दर्शाती है। बदलते समय में इसकी महत्ता को बनाए रखने के लिए जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
बढ़ी मांग
टीमरू के फल पकने के साथ ही आदिवासी अंचलों में इसकी मांग बढ़ गई है। बच्चे, बूढ़े और युवा सभी इन फलों को बड़े चाव से खाते हैं। गर्मी के मौसम में यह प्राकृतिक स्वाद का अनूठा अनुभव कराते हैं। स्थानीय भाषा में लोग इसे जंगल का मेवा भी कहते हैं। जो स्वादिष्ट होने के साथ-साथ ऊर्जा भी प्रदान करता है।
संरक्षण की भी जरूरत
टीमरू के वनों का संरक्षण करना आवश्यक हो गया है। क्योंकि यह न केवल आर्थिक दृष्टि से लाभकारी है। बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वन विभाग समय-समय पर टीमरू के पौधरोपण और संरक्षण को बढ़ावा देने के प्रयास करता रहा है।
टीमरू के केवल फल ही नहीं, बल्कि इसके पत्ते भी बेहद उपयोगी हैं। वन विभाग द्वारा तय प्रक्रियाओं के तहत टीमरू के पत्तों की तुड़ाई कराई जाती है, जिसे ठेकेदारों को बेचा जाता है। ये पत्ते बीड़ी निर्माण में प्रमुखता से काम आते हैं। ग्रामीणों के लिए यह एक महत्वपूर्ण आय का साधन भी बन गया है। तुड़ाई के मौसम में बड़ी संख्या में लोग इससे रोजगार प्राप्त करते हैं।