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Rajasthan Highcourt : राजस्थान में आदिवासी महिला को जेल भेजने से इनकार! हाई कोर्ट में 20 साल पुराने मामले में सजा पर पुनर्विचार

 
Rajasthan Highcourt : राजस्थान में आदिवासी महिला को जेल भेजने से इनकार! हाई कोर्ट में 20 साल पुराने मामले में सजा पर पुनर्विचार

Rajasthan News : हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि अभियुक्ता द्वारा भोगी गई लगभग दो वर्ष की सज़ा ही न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त है. उसे पुनः आत्मसमर्पण करने या अदालत में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं होगी और पूर्व में जारी सभी वारंट या नोटिस वापस माने जाएंगे. यह निर्णय न केवल कानून की सूक्ष्म व्याख्या का उदाहरण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका सुधारता न्याय और मानवीय दृष्टिकोण को सर्वोपरि मानती है.

राजस्थान हाईकोर्ट ने एक अत्यंत संवेदनशील और मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए लगभग दो दशक पुराने आपराधिक मामले में बड़ा और महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है. जस्टिस फरजंद अली एवं जस्टिस आनंद शर्मा की डिवीजन बेंच ने यह स्पष्ट किया कि न्याय केवल कानून का यांत्रिक अनुप्रयोग नहीं, बल्कि विवेक, करुणा और सामाजिक यथार्थ का संतुलन है. मामला बांसवाड़ा जिले की एक आदिवासी महिला काली से संबंधित है. जिसे वर्ष 2004 में सत्र न्यायालय ने अपने पति की हत्या के आरोप में धारा 302 आईपीसी के तहत आजीवन कारावास से दंडित किया था. Rajasthan News

वर्ष 2011 में हाईकोर्ट की एक समन्वय पीठ ने उसकी अपील आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दोषसिद्धि को धारा 302 से घटाकर धारा 304 भाग-I आईपीसी में परिवर्तित कर दिया. यह मानते हुए कि अभियुक्ता आठ वर्षों से निरंतर जेल में है. सज़ा को भोगी गई अवधि तक सीमित कर तत्काल रिहाई के आदेश दिए. हालांकि, बाद में एक प्रशासनिक पत्राचार के माध्यम से यह तथ्य सामने आया कि अभियुक्ता वास्तव में केवल लगभग दो वर्ष ही न्यायिक हिरासत में रही थी और 23 दिसंबर 2005 को ज़मानत पर रिहा हो चुकी थी.Rajasthan News

इस तथ्यात्मक त्रुटि के कारण उत्पन्न विसंगति को सुधारने के लिए वर्तमान याचिका पर विचार किया गया. न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह कार्यवाही किसी प्रकार की समीक्षा नहीं है, क्योंकि आपराधिक न्यायालयों को समीक्षा का अधिकार नहीं होता. बल्कि यह एक आवश्यक न्यायिक सुधार है, जो पूर्व में उपलब्ध न कराए गए महत्वपूर्ण तथ्य के प्रकाश में किया गया है. डिवीजन बेंच ने यह भी रेखांकित किया कि इस त्रुटि के लिए अभियुक्ता को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि यह चूक अभियोजन एवं प्रशासनिक तंत्र की थी. अभियुक्ता की ओर से अधिवक्ता के पेश नहीं होने पर कोर्ट की ओर से अधिवक्ता शोभा प्रभाकर को न्यायमित्र नियुक्त किया गया.Rajasthan News

20 वर्षों से शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना

न्यायमित्र प्रभाकर ने पूरे मामले पर मानवीय व कानूनी पहलू पर पैरवी की. न्यायालय ने मामले की पृष्ठभूमि, घटना की घरेलू प्रकृति, क्षणिक आवेग में हुआ एकमात्र प्रहार, अभियुक्ता की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, उसका आदिवासी एवं निर्धन होना, कोई आपराधिक पूर्व वृत्त न होना तथा बीते 20 वर्षों से शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना, इन सभी कारकों को अत्यंत महत्वपूर्ण माना. हाईकोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि पति-पत्नी के बीच घरेलू विवाद में घटित इस दुखद घटना में अभियुक्ता स्वयं आजीवन व्यक्तिगत क्षति की शिकार हुई है. ऐसे में इतने लंबे अंतराल के बाद उसे पुनः जेल भेजना न तो न्यायसंगत होगा और न ही मानवीय. मानवीय स्तर पर, यह कोर्ट इस कड़वी सच्चाई से अनजान नहीं रह सकता कि इस गरीब महिला को बीस साल के लंबे संघर्ष और घटना के अपरिवर्तनीय व्यक्तिगत परिणामों को झेलने के बाद, बाकी छह साल की सज़ा काटने का निर्देश देना, बहुत ज़्यादा कठोर कदम होगा. सच तो यह है कि न्याय और विवेक की नज़र से देखने पर, उसे सज़ा की बची हुई अवधि के लिए वापस जेल भेजना भी न्यायसंगत या मानवीय नहीं लगता. Rajasthan News